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धर्म की तलवार

by वीणा शिवपुरी
" अब सवाल यह हैं कि हमे शिकायत धर्म के होने से हैं या उसके स्त्री - विरोधी स्वरूप से । अगर होने को हम रोक नहीं सकते, अगर ज़्यादातर औरतें उसकी महसूस करती हैं, तो हम उसे बदलने की कोशिश क्यों नहीं करते । आखिर सभी धर्म वक्त के साथ बदलते रहे हैं तो आज बीसवीं सदी में ये वक्त की ज़रुरत के अनुसार क्यों नहीं बदल सकते । " आगे पढ़िए..
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दूध का क़र्ज़

by वीणा शिवपुरी
“ कल जब तू दुल्हन को लेकर दरवाज़े पर आऐगा, मैँ तुम दोनों की आरती उतरूंगी । तुम्हे खुश रहने का आशीवार्द दूंगी । तू मुझसे दूध की कीमत पूछेगा । न मैँ सोने के कंगन मांगूंगी, न दुल्हन के गले का हार । बेटा, मैँ तो तुझे अपना कर्ज़दार मानती नहीं अगर अपनी मां को कुछ देना ही चाहता हैं तो एक वचन दे तेरी दुल्हन के साथ वो सब न हो जो मेरी मां के साथ हुआ । ... एक इंसान के रूप मेँ एक दूसरे की बढ़ोतरी मेँ सहयोगी बनो । " आगे पढ़िए...
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बेटी या बेटा ज़िम्मेदार कौन?

by जूही जैन
"पर सवाल हैं कि क्या वाकई बेटी जनना गुनाह हैं और अगर गुनाह हैं तो क्या दोषी औरत हैं? ... हमे ज़रुरत हैं समाज का नजरिया बदलने की अब हमे समाज के इस ईंट कुलदीपक और लकड़ी देने वाले सम्बोधन से हटकर औरतो की शक्ति , हिम्मत और परिवार में योग्यदान को स्वीकारना होगा । ... पितृसत्तामक मूल्यों को छोड़ना होगा । लड़की को बोझ न समझकर उसके स्वतंत्र आस्तित्व को पहचाना होगा । " आगे पढ़िए…
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मुझे मत मरो ! मेँ डायन नहीं हूं

by विशेष संवाददता
" अन्धविश्वास का बहाना बना कर गाव के मर्द और पंचायत की मिलीभगत से औरतो को नारकीय यातना दी जाती हैं । आमतौर पर ये मर्द वे लोग होते हैं जिनका गाव मेँ दबदबा होता हैं । ये लोग या तो औरत का शारीरिक इस्तेमाल नहीं कर पाए या उसकी ज़मीन पर इनकी नज़र होती हैं । हर जागरूक स्त्री और पुरुष को राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए । " आगे पढ़िए...
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यौनिक हिंसा सरकार और समाज का रवैया

by मीता राधाकृष्णन
" क्या हम इस इज़्ज़त की परिभाषा नहीं बदल सकते । अगर हम यौनिक हिंसा पर अपना नजरिया बदल ले और मान ले कि बलात्कार भी किसी और हिंसा की तरह हैं , तो हमे यौनिक हिंसा के डर के सए तले नहीं जीना होगा । साथ ही समाज के इस पित्रसतात्मक ढांचे को चोट पहुंचेगी । यह मानने पर कि बलात्कार हम पर होने वाली तमाम हिंसा मेँ से एक हैं, हम इज़्ज़त को छोड़कर पुरे समाज को बदलने को कोशिश करेंगे । ... तब तक समाज को जड़ से नहीं उखाड़ फेंकेंगे , तब तक समाज का ढांचा नहीं बदल सकते । " आगे पढ़िए
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एक दुखद विचारणीय मुद्दा ससुराल में बहू घुट-घुट कर क्यों जिए ?

by आदर्श सबलोक
" क्या यह समाज द्वारा बनाई गई उन मान्यताओं के कारण ही नहीं हैं , जहां बेटियां यह सुन- सुन कर बड़ी होती हैं कि पति के घर से पत्नी की अर्थी ही निकलनी चाहिए ? दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि शादी एक ऐसा बंदन हैं जिसमे एक बार बंध जाने पर ही उससे छुटकारा मिल सकता हैं । .... ऐसी मर्यादाए सिर्फ औरत के लिए ही क्यों? क्या एक संतुलित व सुखी परिवार बनाने के लिए पुरुष के लिए भी कुछ मर्यादाओ का होना जरूररी नहीं? " आगे पढ़िए ...

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About Living Feminisms

Living Feminisms is an attempt to share archives preserved by Jagori, a New Delhi-based feminist organisation from the eighties. It offers subjective accounts by our curators as well as access to publications, songs, pamphlets, posters, photographs, poems etc. Together, they reflect the diverse spectrum that is the autonomous Indian women’s movement, its struggles, solidarities and differences, laughter, anger, carefree moments, campaigns, love, loss, work and home.

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