मेरे सफर की चंद झलकियां

सरोजिनी एन

 

मेरे सफर की चंद झलकियां

  

स्रोत : सरोजिनी की निजी पुरालेख

इस तस्वीर (दि पायनियर; वर्ष 1994) में एक औरत दीवार फांदती हुई दिखाई दे रही है। यह मैं हूं। हम लोग एक दवाई निर्माता कंपनी के दिल्ली दफ्तर में घुसने की कोशिश कर रही थीं। उस दिन कंपनी में महिलाओं के लिए तैयार किए गए एक विवादास्पद इंजेक्टेबल गर्भनिरोधक - डेपो-प्रोवेरा - को बाज़ार में उतारने के सवाल पर एक अहम बैठक चल रही थी। महिलाओं के संगठन, स्वास्थ्य संगठन तथा मेडिको फ्रेंड सर्कल (एमएफसी) जैसे नेटवर्क इस दीर्घकालिक इंजेक्टेबल गर्भनिरोधक के खिलाफ थे। इस तरह के इंजेक्टेबल गर्भनिरोधकों (डेपो और नेट एन) के साइड इफेक्ट्स के बारे में काफी अध्ययन हो चुके थे। शोधों में पाया गया था कि ये गर्भनिरोधक माहवारी के चक्र को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर देते हैं। हमें अच्छी तरह मालूम था कि इनसे औरतों की सेहत के लिए किस तरह के भारी-भरकम खतरे पैदा हो सकते हैं। इसके अलावा एक स्थायी चिंता यह थी कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था एक ऐसे गर्भनिरोधक की सुरक्षित डिलीवरी को संभाल पाएगी या नहीं जिसके लिए बहुत सघन और लगातार चिकित्सकीय मदद की ज़रूरत होती है।

जब एडवा, जागोरी व सहेली जैसे महिला संगठन और वृंदा करात जैसे लोगों को इस इंजेक्टेबल गर्भनिरोधक के बाज़ार में आने की खबर मिली तो हमने भी जानने का प्रयास किया कि कंपनी किस आधार पर इस दवाई को बाज़ार में उतार रही है। हम इसके प्रायोगिक परीक्षणों (क्लिनिकल ट्रायल) और जोखिमों आदि के बारे में तफ्सील से जानना चाहते थे। लिहाज़ा, हम चाहते थे कि हमें भी उस मीटिंग में बुलाया जाए। मगर न केवल हमें मीटिंग में शामिल होने की इजाज़त नहीं दी गई बल्कि हमें बाकायदा बाहर रोक दिया गया। जब हमारे पास कोई चारा न बचा तो हमें दीवार फांद कर ही भीतर जाना पड़ा। जब दूसरी साथियों के साथ मैं भी दीवार फांद रही थी तो किसी अखबारनवीस ने यह तस्वीर क्लिक कर ली। और अगले दिन तो यही तस्वीर तमाम अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खियों में छा चुकी थी। हैरानी की बात नहीं है कि कई अखबारों ने इस तस्वीर के साथ "unfeminine"यानी "गैरज़नाना हरकत"जैसे कैप्शन भी छापे। प्रेस वालों के एक तबके ने दलील दी कि हमारा बर्ताव "बाइज़्ज़त"औरतों जैसा नहीं था। हमें स्वेच्छापूर्वक फैसले लेने के अधिकार, विकास और विज्ञान की विरोधी घोषित कर दिया गया था। और तो और, हम पर ये भी इल्ज़ाम लगाया गया कि सनसनीखोर हैं!

अस्सी के दशक के आखिर में (1989) जब मैं दिल्ली स्थित जागोरी से जुड़ी तो जनसंख्या नियंत्रण नीतियों, प्रजनन विरोधी टीकों और हार्मोनल गर्भनिरोधकों के अनैतिक चिकित्सकीय परीक्षणों के खिलाफ पुरज़ोर अभियान चलाया जा रहा था। जागोरी का हिस्सा होने के चलते मैं भी इन अभियानों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थी। इस अभियान ने जागोरी से जुड़ी हम सभी साथियों को स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर ज्ञान की ऊंच-नीच भरी और तकनीकी व्यवस्थाओं को समझने और बेपर्द करने में मदद दी। डॉक्टरों, दवा कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों, दाताओं और नीति निर्माताओं का ‘गठजोड़’ एक अहम पहलू था जिसे हमने इन अभियानों के ज़रिए समझने और समझाने की पुरज़ोर कोशिश की। हमारे बीच बहुत गर्मागर्म चर्चाएं और बहसें होतीं: ”स्वेच्छा या चयन और अधिकार के बारे में कैसे बात करें? क्या पितृसत्तात्मक समाज में औरतों के पास चयन या अपनी मर्ज़ी का अधिकार होता भी है? सही क्या है, क्या गलत है? जनसंख्या नियंत्रण और जन्म नियंत्रण के बीच क्या भेद है?“

ज़ोर-ज़बर्दस्ती और अपनी मर्ज़ी से लिए गए फैसले के बीच बारीक विभाजक रेखा और समाज के बहुत सारे तबकों की मिलीभगत ऐसी चुनौतियां थीं जिनका हार्मोनल गर्भनिरोधकों के खिलाफ अपने अभियान में हमें बार-बार सामना करना पड़ रहा था। नए और पुराने, दोनों अर्थों में चयन, ज़ोर-ज़बर्दस्ती, सशक्तिकरण और व्यवस्थागत हिंसा के सवालों से हमें कदम-कदम पर जूझना पड़ता था। परोपकार और सशक्तिकरण, चयन की लफ्फाज़ी की आड़ में गरीब औरतों के जिस्मों को डॉक्टरी आज़माइशों का अखाड़ा बना दिया गया था। इस लफ्फाज़ी में बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों की मुनाफाखोरी और अपनी देह पर अपने अधिकार व स्वास्थ्य के अधिकार की अवहेलना नज़रों से मानो ओझल होती जा रही थी।

मोतियों को पिरोना

जागोरी एक ऐसा नारीवादी मंच था जहां विविधता को न केवल भरपूर सम्मान की नज़र से देखा जाता था बल्कि उसको बढ़ावा दिया जाता था। और इस सारी विविधता के बावजूद हम एक बहुत संगठित समूह के रूप में काम करती थीं। यहां मैंने नारीवाद के बारे में और महिलाओं के आंदोलन के बारे में जाना। मैंने जाना कि किस तरह महिलाओं का आंदोलन महिला विरोधी हिंसा, गरीबी, जनसंख्या नियंत्रण नीतियों और प्रजनन अधिकारों जैसे पितृसत्ता के विभिन्न रूपों और लक्षणों को संबोधित करता है।

जागोरी की एक अनूठी खासियत यह थी कि यह एक महिला समूह के रूप में काम करता था। जागोरी में मेरे सफर के दौरान हमने सबला संघ, ऐक्शन इंडिया, एडवा, सहेली, सीडब्ल्यूडीएस और बहुत सारे अन्य संगठन नेटवर्कों, जैसे एमएफसी, के साथ बहुत घनिष्ठ रूप से काम किया। आजीविका, पर्यावरण, शिक्षा और इसी तरह के अन्य मुद्दों पर जागोरी दूसरे राज्यों, खास तौर से उत्तर प्रदेश और बिहार में काम करने अन्य संगठनों के साथ भी जुड़ा हुआ था। हालांकि मैं जागोरी के साथ शहरी परिवेश में जुड़ी हुई थी मगर मुझे दिल्ली (सबला संघ) के साथ-साथ सराहनपुर और बांदा के अर्धशहरी या ग्रामीण समुदायों के साथ काम करने का भी भरपूर मौका मिला।

इस दौर में संस्थागत और गैर-संस्थागत, दोनों किस्म की सामूहिक कार्रवाइयों के बारे में मेरी समझ पुख्ता हुई। इन सरगर्मियों में समुदाय आधारित संगठनों के साथ कार्यशालाओं और प्रशिक्षणों के आयोजन से लेकर रैली-जुलूसों, नुक्कड़ नाटकों, दीवार लेखन, सत्याग्रह और जनहित याचिकाएं (पीआईएल) दायर करने तक तमाम तरह की गतिविधियां शामिल थीं। चाहे तब की बात हो या अब, नारदीवादी एक्टिविज़्म में हमेशा एक विविधता रहती थी। जागोरी ने हमेशा ही कोशिश की कि हाशियाई औरतों की आवाज़ों को ऊपर उठाया जाए और विभिन्न मुद्दों पर की जा रही नारीवादी एडवोकेसी को उनके अनुभवों के साथ जोड़ा जाए।

निस्सीम जुड़ाव

विभिन्न मुद्दों और हितों पर काम करने की जागोरी की संस्कृति मैंने बखूबी आत्मसात की है। मानवाधिकारों या सामाजिक न्याय से जुड़े किसी भी मुद्दे पर हम सब इकट्ठा हो जाते थे। मुझे याद है कि मानवाधिकार के मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं को सुनने और समझने के लिए मैं आभा के साथ पीयूडीआर की मीटिंगों में भी जाया करती थी। यह एक बिल्कुल अलग ही दुनिया थी। मेरे लिए यह इसलिए दिलचस्प बात थी क्योंकि मैं सशक्तिकरण, न्याय और अधिकारों के सिर्फ किसी एक आयाम पर नहीं देख रही थी।

जागोरी ने एक ऐसे दायरे की रचना की जहां एक्टिविस्ट, फिल्मकार, शोधकर्ता और पत्रकार, सब मिलते-बैठते थे, अपने संघर्षों, तजुर्बों को साझा करते थे। कभी-कभी फिल्में भी दिखाई जाती थीं। हालांकि यह एक नारीवादी दायरा था मगर हमने नई आर्थिक नीतियों से लेकर महिला विरोधी हिंसा तक तमाम तरह के मुद्दों पर फिल्म स्क्रीनिंग, अध्ययन चक्रों, मीटिंगों और बहसों का आयोजन किया। इन अनुभवों से हमें ऐसी वृहद ताकतों को समझने में मदद मिली जो औरतों की सेहत और ताकत, दोनों पर असर डालती हैं।

मुझे याद है राजीव शाह ने एक बार अपनी फिल्म फेमिन 87 या शायद ऐसा ही कुछ नाम था, जागोरी में दिखाई थी। है ना मज़ेदार बात? फिलहाल तो हालत ये है कि अगर आप भोजन के अधिकार या किसी ऐसे ही संबंधित मुद्दे पर काम न कर रहे हों तो आपको ऐसी फिल्म देखने का मौका नहीं मिलेगा। हम विभिन्न मुद्दों पर मिलकर फिल्में देखते और दिखाते थे। रोज़गार, तनख्वाह, घर के कामों में इज़ाफा, भोजन की उपलब्धता, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच, आवास आदि औरतों की जि़ंदगी के तमाम पहलू हमारी चर्चाओं और चिंतन का हिस्सा होते थे। इसी तरह, अपने परिवारों और समुदायों में महिलाओं की अधीनता तथा महिलाओं और गरीबों के खिलाफ उनके परिवारों और समुदायों में होने वाली हिंसा में इज़ाफा वगैरह विभिन्न एक्टिविस्ट मित्रों के साथ हमारी चर्चाओं का हिस्सा बन जाते थे।

                                                        

कुछ समय के लिए ही सही मगर हम नर्मदा अभियान में भी हिस्सेदार रहे हैं। जब बांध के खिलाफ हरसूद में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया था तो जागोरी से माधुरी, वेइके, विभा और मैं, गौरी और एक्शन इंडिया की सबला संघ मित्रों के साथ हरसूद की रैली में शामिल हुए थे। अलग-अलग पेशों और पृष्ठभूमियों के 60,000 से ज़्यादा लोगों ने इस जुलूस में हिस्सा लिया था। भले ही हम एक नारीवादी धारा से जुड़े हुए थे, फिर भी हमें इस बात का भली-भांति पता था कि ये सारे मुद्दे आपस में जुड़े हुए हैं। यह उसी दौर की बात है जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। हम सांप्रदायिकता के मुद्दे पर भी बहुत सरगर्म थे। हम सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन और बाद में पीपुल्स मूवमेंट फॉर सेक्युलरिज़्म से जुड़े हुए थे। हमने फिरोज़शाह कोटला पर हुई भूख-हड़ताल में हिस्सा लिया और पास में ही सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के तौर पर एक प्याऊ बनाई थी।

यह वो ज़माना था जब दिल्ली में होने वाले धरना प्रदर्शन सिर्फ जंतर-मंतर तक सीमित नहीं हुआ करते थे। आप शहर में कहीं भी जाकर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते थे! हमारे ज़्यादातर विरोध, जुलूस, धरने और प्रदर्शन आईटीओ पर हुआ करते थे क्योंकि यहां हम ज़्यादा लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकते थे। या फिर इंडिया गेट हमारा ठिकाना होता था। 8 मार्च की हमारी रैलियां अकसर दरियागंज से शुरू हुआ करती थी। हमने ओल्ड सिटी में भी कई बार जुलूस निकाले। जुलूस से कुछ दिन पहले ही हम वहां जाकर पोस्टर चिपकाते, पर्चे बांटते। यहां तक कि रात में भी हम अभियान चलाते और लोगों को आने वाले जुलूस के बारे में बताते थे। हमेशा ही हम स्थानीय औरतों से बात करते, ओल्ड सिटी में जलेबी, कबाब खाते और चाय पीते।

हम दिल्ली में टेक बैक दि नाइट (दिन हमारे, रात हमारी) के सिलसिले के सिर्फ शुरुआती कदम नहीं उठा रहे थे बल्कि फ्लाईओवरों जैसे स्थानों पर भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। हमें किसी का डर नहीं था। हम अकसर सामूहिक गिरफ्तारियां देते। पुलिस हमें खदेड़ने के लिए पानी की बौछार करती। या कभी वे हमें बस अथवा वैन में बिठा कर ले जाते और शाम को वापस लाकर छोड़ देते।

मुझे याद है कि 8 मार्च के एक जुलूस में हमने शांति, धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव के अपने नारे और संदेश उर्दू, हिंदी और अन्य भाषाओं में भी लिखे थे। शीबा छाछी ने खत्ताती यानी कैलीग्राफी की थी और और हमने साडि़यों पर इन नारों को काट कर चिपका दिया था। हम ये नारे लेकर समूचे पुराने शहर में घूमे और लाल किले पर हमने विशाल जुलूस निकाला।

युवाओं की हौसला अफज़ाई और उनकी सहभागिता

वीणा दी (वीणा मजूमदार) जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम में सक्रिय रूप से जुड़ी हुई थी। उस ज़माने में मणिशंकर अय्यर पंचायती राज्य मंत्री हुआ करते थे और हमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को एक ज्ञापन देना था। ज्ञापन देने के लिए कौन-कौन लोग जाएंगे उनकी फेहरिस्त तैयार की जा रही थी। इस फेहरिस्त में औरों के अलावा वीणा दी, लॉतिका दी (सीडब्ल्यूडीएस), मोहन राव (जेएनयू) के भी नाम थे। इसी बीच वीणा दी ने कहा, "क्या इस प्रतिनिधि मंडल में किसी नौजवान को भी साथ ले चलें?" उस सभा में मैं ही सबसे युवा थी और इस तरह मैं भी उस प्रतिनिधि मंडल का हिस्सा बना ली गई। यह युवाओं को प्रोत्साहिन करने और साथ जोड़ने का एक बेहतरीन उदाहरण था।

शोधिनी

स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर मेरी दिलचस्पी के चलते जागोरी की तरफ से मैं महिलाओं के आंदोलन से उपजी शोधिनी परियोजना से भी जुड़ी हुई थी। मेरे खयाल से इस परियोजना का खयाल सबसे पहले कालीकट स्वायत्त महिला सम्मेलन में और कुछ समय बाद एसआरईडी, तमिलनाडु की फातिमा बर्नार्ड द्वारा आयोजित की गई एक कार्यशाला में सामने आया था। इस परियोजना के तहत महिलाओं पर काम करने वाले लोग एकजुट हुए और उन्होंने इनवेसिव मेडिसिन व इंजेक्टेबल दवाइयों के विकल्प ढूंढने और अपने शरीर की एक ज़्यादा वाजिब समझदारी विकसित करने का प्रयास किया। शोधिनी परियोजना की बागडोर जिनेवा वीमेन्स हैल्थ कलेक्टिव से जुड़ी रीना निस्सीम के हाथों में थी। रीना निस्सीम पेशे से नर्स थीं और उन्होंने कोस्टा रिका में जड़ी-बूटियों और स्वयं सहायता पद्धति पर काम किया था। इस प्रयोग में देश भर के बहुत सारे महिला संगठन शामिल हुए थे। फिलोमिना, रेणु खन्ना, नीता, भारती रॉय, इंदिरा बालचंद्रन, उमा माहेश्वरी, अनु गुप्ता, रीना निस्सीम और मैं शोधिनी में अपने-अपने संगठनों की तरफ से शामिल कोर टीम की सदस्याएं थीं।

सबसे पहले हमने इस बात पर गौर किया कि औरतों को क्या विकल्प मुहैया कराए जा सकते हैं? कैसे हम अपने जिस्म पर अपना नियंत्रण बना सकती हैं और महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर एक मुकम्मल और ज़्यादा समझदारी रच सकती हैं? चिकित्साकरण से जुड़े तमाम मुद्दों को कैसे संबोधित किया जा सकता है?

इस प्रकार, महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रभुत्वशाली व्यवस्था के एक विकल्प की रचना के लिए शोधिनी का जन्म हुआ। यह सरल, प्राकृतिक और किफायती स्वास्थ्य व्यवस्था विकसित करने के लिए शुरू की गई एक महिला-केंद्रित पद्धति थी। इसमें परंपरागत जड़ी-बूटियों पर आधारित उपचार व्यवस्था को बहाल करना, औरतों को अपने स्वास्थ्य की देखभाल के लिए इन पद्धतियों के इस्तेमाल का प्रशिक्षण देना और अपने समुदायों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए इन पद्धतियों के प्रयोग का प्रशिक्षण देना भी शामिल था। शोधिनी नेटवर्क ने महिलाओं के स्वास्थ्य, खासतौर से प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राकृतिक और परंपरागत विकल्पों पर ज़ोर दिया।

              

 

रीना ने स्वयं सहायता की अवधारणा, गर्भनाल या गर्भाशय आदि प्रजनन अंगों तथा स्तन और पेडू की जांच के लिए स्वयं-निदान कार्यशालाओं का सिलसिला शुरू किया। इस तरह हम ‘घुमंतू स्त्री रोग विशेषज्ञों’ की एक जमात तैयार कर रहे थे। हम इस बारे में फिक्रमंद थे कि कैसे औरतों का पौधों के ज़रिए ईलाज किया जा सकता है - सिर्फ आयुर्वेदिक पौधे ही नहीं बल्कि उन पौधों के ज़रिए भी जिनका महिलाएं घर पर इस्तेमाल करती थीं! महिला दाइयों-वैद्यों के ज्ञान को कैसे बचाया जा सकता है?

इस सिलसिले में हमें बहुत सारा शोध करना था। मैंने दून वैली (शिवालिक की निचली पहाडि़यों) में भारती के साथ इस पर अध्ययन किया। हमने यहां गांवों में ईलाज करने वाली औरतों की शिनाख्त करते हुए 6 महीने बिताए। हर महीने मैं तकरीबन 20 दिन शिवालिक इलाके में बिताती और फिर वहां देखे-सुने तौर-तरीकों का दस्तावेज़ीकरण करने कुछ दिन के लिए दिल्ली आती। हम महिला वैद्यों को लेकर जंगलों में जाते। उनके साथ जड़ी-बूटियां इकट्ठा करते, वनस्पति कोश (हरबेरियम) बनाते, विभिन्न पौधों के गुण-दोष के बारे में पता लगाते, सबके साथ बैठकर अलग-अलग जड़ी-बूटियों की विशेषताओं का अध्ययन करते (मूत्रवर्धक या स्तंभक), उनके विषैलेपन का विश्लेषण करते और इसी तरह के दूसरे दिलचस्प काम करते थे। मैंने भी तकरीबन 100 चिकित्सकीय पौधों को पहचानना सीख लिया था।

इस परियोजना के अगले हिस्सों में ज़्यादा व्यावहारिक सत्र आयोजित किए गए जो ज़्यादा मुश्किल भी थे। जैसे, स्तनों की जांच करना, दो हाथों से गर्भाशय की जांच करना, पेट की जांच करना आदि। शुरू में मैंने ये मान लिया था कि मैं इस पचड़े में नहीं पडूंगी। हमें इन सारी तकनीकों को सीखना था और स्पेक्यूलम यानी छोटे आइने की मदद से जांच करनी थी। शुरू में मुझे इस सबको करने में बड़ी हिचक महसूस हुई। आभा से मैंने इस बारे में चर्चा भी की थी। तब एक दफा उन्होंने मुझसे पूछा था, "क्या तुम आइने में अपना चेहरा नहीं देखती? उसे देखना अपने जिस्म के किसी भी दूसरे हिस्से को देखने से भला किस तरह अलग है? जब तुम्हें कोई परेशानी होती है तो क्या तुम डॉक्टर से अपनी जांच नहीं कराती?"मुझे बात समझ में आ गयी थी! मुझे महसूस हुआ कि जब हम स्त्री रोग विशेषज्ञों के पास जाते हैं तो उनसे अपने शरीर की जांच कराती हैं मगर खुद अपने जिस्मों को देखने में कितना असहज महसूस करने लगती हैं। शरीर और यौनिकता को लेकर मेरी जो हिचकिचाहटें थीं वे टूटने लगीं। यह अच्छी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी सबक था।

इस तरह, मैंने भी दोनों हाथों से जांच करना, योनि परीक्षण, पेट की जांच और स्तनों की जांच करना सीख लिया। मैं अलग-अलग किस्म के स्रावों और लक्षणों में फर्क कर सकती थी और उनके समाधान सुझा सकती थी और ईलाज के लिए रेफर कर सकती थी। नंदनगरी, सीमापुरी आदि मज़दूरवर्गीय पुनर्वास बस्तियों में मैंने रीना और भारती के साथ सबला संघ की सदस्यों को इन तकनीकों का प्रशिक्षण भी दिया। बाद में इस शोध को काली फॉर वीमेन द्वारा टच मी, टच मी नॉट (हाईपरलिंक) के नाम से प्रकाशित किया गया।

जि़ंदगी और उसका रास्ता

जब मैं पहली बार गर्भवती हुई तो जागोरी की पूरी टीम मुझे और रंजन को हर तरह से मदद देने के लिए तत्पर थी। आभा, माया, मीता, वीणा शिवपुरी, कल्पना विश्वनाथ, जुही, सरोज, तुलसी, अलका, प्रेम सिंह, वेइके और प्रीति, जागोरी की पूरी टीम हमारे पास थी। इसके अलावा शीबा, मंजरी, कमला भसीन यानी विस्तृत जागोरी परिवार की अन्य सदस्य तथा एक्शन इंडिया की भारती रॉय, गौरी, शारदा बहन, रुनु, शांति और सबला संघ की सारी साथिनें भी हर वक्त हमारे लिए हाजि़र थीं। और उनके अलावा रेणुका मिश्रा, माधवी और मालिनी भी तो थीं। इस फेहरिस्त को मैं चाहे जितना लंबा करूं, कुछ साथियों के नाम फिर भी छूट ही जाएंगे।

मुझे याद है जब मुझे प्रसव का दर्द शुरू हुआ तो कल्पना विश्वनाथ, वीणा शिवपुरी और मालिनी घोष लेबर रूम में भी मेरे साथ ही थीं। बाद में जब मैं अपने पहले बेटे ऋत्विक को स्तनों से दूध नहीं पिला पा रही थी तो मुझे याद है कमला कितनी फिक्रमंद हो गई थी। आभा और गौरी भी बहुत चिंतित थीं। इत्तेफाक से सबला संघ की रेश्मा, ज्ञानवती और महारानी आदि कुछ अन्य साथियों ने भी तकरीबन उसी समय अपने बच्चों को जन्म दिया था इसलिए वे बारी-बारी से ऋत्विक को भी दूध पिला दिया करती थीं। अभी भी जब उनमें से कोई ऋत्विक को देखती है तो बेसाख्ता कह देती है, "मेरा बेटा कितना बड़ा हो गया है...।"अपनी खुशियों और मसलों में साझेदारी की बदौलत हमारी जि़ंदगियां किस कदर एक दूसरे में गुंथी हुई थीं! एक बार ऋत्विक के जन्म के बारे में बात करते हुए कल्पना ने कहा, "जब हमने ऋत्विक को जन्म दिया..." मानो हम सबने ऋत्विक को पैदा किया हो!

                                                     

बच्चा पैदा हो जाने के बाद भी मेरे काम और मेरे एक्टिविज़्म में कोई कमी नहीं आयी थी। ऋत्विक भी देखते-देखते हमारे एक्टिविज़्म और रोज़मर्रा के कामों का साझीदार बन गया था। जयपुर में भंवरी देवी के बलात्कार के खिलाफ एक विशाल विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया था। जाड़ों के दिन थे। अभी ऋत्विक सिर्फ 8 महीने का था। जागोरी की मेरी सभी साथी बस से जयपुर जा रही थीं। मैं दिल्ली में रुकना नहीं चाहती थी। तब हम सबने मिलकर तय किया कि मैं भी ऋत्विक के साथ जयपुर जाऊंगी। रैली के दौरान हम सभी ने उसको बारी-बारी से झोले में लिटा कर संभाले रखा। यह एक अलग ही तर्जुबा था: इसका यकीन कि हम मिलकर सब कुछ कर सकते हैं।

बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय हम सभी ने शांति, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव के अपने संदेश को फैलाने की ज़रूरत महसूस की। जब ऋत्विक 11 महीने का था तब हम सभी एक दिन सहेली के दफ्तर में इकट्ठा हुए और फ्लाईओवरों पर अपने नारे और संदेश लिखने के लिए रंग और कूचियां लेकर निकल पड़े! आधी रात हो तो भी क्या फर्क पड़ता है?ऋत्विक यहां भी हमारे साथ था। हमने मंजरी की फिएट में ड्राइवर के साथ उसको छोड़ दिया था। आधी रात से सवेरे 3 बजे तक हम फ्लाईओवरों पर नारे और संदेश लिखते रहे।

जब ऋत्विक बहुत छोटा था तो उसने इस बात को समझ लिया था कि जब भी कोई घर में आता है तो उसे पानी ज़रूर पेश किया जाता है। हमारी नियमित बैठकों के दौरान बहुत सारे जज़्बाती लम्हे आते थे क्योंकि हम बहुत निजी कहानियां एक-दूसरे से साझा किया करते थे। एक बार जब कोई साथी रोने लगी तो ऋत्विक पानी का एक गिलास लिए आया और बोला, "पानी पी लो।"

जागोरी डायरी

जागोरी की डायरियों का जि़क्र किए बिना जागोरी का मेरा सफर नामुकम्मल ही रह जाएगा। कविताओं, निबंधों और रेखाचित्रों के ज़रिए नारीवादी अभिव्यक्ति और रचनाशीलता भी हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण थे जितना बाकी चीज़ें थीं। इन डायरियों की विषयवस्तु के बारे में सोचना और चर्चा करना एक मिली-जुली प्रक्रिया थी जिसमें एक से एक कमाल के अनुभव पेश आते थे। ये डायरियां महिलाओं के आंदोलन का एक हिस्सा थीं और आज भी हैं। सांप्रदायिकता पर तैयार की गई डायरी को बनाने और सजाने में मुझे खासतौर से मज़ा आया था। सबला संघ, एक्शन इंडिया की साथियों, शीबा, जोगी वगैरह के साथ जागोरी की पूरी टीम ने इस डायरी को तैयार करने में दिन-रात काम किया था।

मेरी खुशकिस्मती रही कि मुझे जागोरी में मिल-जुल कर सीखने और करने का ऐसा बेशकीमती तजुर्बा मिला। मैं जागोरी में बिताए अपने दिनों को हमेशा उस दौर के रूप में याद करती हूं जिसने महिलाओं से जुड़े मुद्दों की मेरी समझ और मेरी राजनीति को एक व्यापक पैनापन दिया। ये सीखें और उपलब्धियां हमेशा मेरे साथ रहेंगी।