अंदर की लड़ाई

रूनु चक्रवर्ती

 

यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है  अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा और महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख

अंदर की लड़ाई

नवम्बर १९८४ के सिख-कत्लेआम के बाद हम सब टूट चुके थे। नागरिक एकता मंच के ज़रिये राहत शिविरों में राहत का काम करते, पीड़ित महिलाओं-बच्चों के साथ समय गुज़ारते और उनकी बातें सुनते। शाम को सहेलियाँ आपस में मिलकर रोतीं, जी हल्का कर घर लौटतीं। अगले दिन फिर दहशत में जी रहे इंसानों के साथ कुछ पल गुज़ारने के लिए खुद को तैयार करतीं। हर समय, चारों तरफ जैसे अभी भी लाशों और टायरों के जलने की बू आ रही थी। घर-सामानों में लगी आग तो बुझ चुकी थी पर अंदर की आग धधक रही थी।

सरकार से राहत की कोई उम्मीद न तो थी और न ही राहत ली गई। दिल्ली के नागरिकों ने, जिससे जैसा बन पड़ा, किया। अपराधियों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज़ तो हुए पर सत्तासीन कांग्रेस सरकार ही जहां अपराधी और अपराधों को शह दे रही हो वहां न्याय कैसे मिलता! धीरे-धीरे लोगों की जिंदगियां तो वापस ढर्रे पर लौटने लगी थीं पर ज़ेहन के ज़ख्म हरे ही रहे। 

इस सदमे से उभरे भी नहीं थे कि भोपाल गैस त्रासदी का सामना हुआ। बौखलाए हम भोपाल एक स्टडी के लिए पहुंचे। इस स्टडी का उद्देश्य यह पता लगाना था कि मीथेन गैस से महिलाओं और पुरुषों के जनन तन्त्र और अन्य अंगों पर क्या असर पड़ा है। 

वहां जो देखा वो मौत से भी भयंकर था....। ज़िन्दा बचे लोग बस किसी तरह साँसें खींच रहे थे और मरने की दुआ मांग रहे थे। लगातार इन दो हमलों ने जता दिया था कि इस बड़ी व्यवस्था के आगे हम कितने असहाय हैं। दिल में मौत का आतंक घर चुका था। इन ढांचागत हमलों द्वारा की गई हिंसा के आगे हमारी लाचारी स्वाभाविक थी। एक ऐसी हार जिसे हमने अभी भी स्वीकारा तो नहीं था पर मन में घर कर गया था एक अंतहीन विषाद। 

उसी समय खबर आयी कि हमारी एक सहेली की सहेली की बहन का उसके पति का एक मित्र जो आर्मी में बड़ा अफसर है, यौन शोषण कर रहा है। वह हैदराबाद से जम्मू, यानी अपने घर से कार्यक्षेत्र के सफर में रात को दिल्ली में अपने दोस्त के यहाँ ठहरता था और दोस्त की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी का यौन शोषण करता था। जैसे ही खबर मिली, हम कुछ सहेलियाँ इकट्ठी हुईं और इस अपराधी को सज़ा देने की योजना तैयार की।

योजना के अनुसार, जिस शाम को उस अपराधी को दिल्ली आना था हम 7-8 सहेलियां शाम को उस पीड़िता के घर पर इकट्ठा हुईं। साथ में हमारे दो पुरुष मित्र और पीड़िता की बहन और बहनोई भी थे। योजना अनुसार हम अंदर के कमरे में अन्धेरा कर उस अपराधी के आने का इंतज़ार करने लगे। बाहर घर की मालकिन, पीड़ित महिला की बहन-बहनोई और हमारे दो पुरुष साथी बैठे हुए सहज बातचीत कर रहे थे ताकि उस अपराधी को आने पर सब कुछ स्वाभविक सा ही लगे और ऐसा ही हुआ भी। वो आया और जाल में फंस गया। बिना किसी शंका के वह आकर एक कुर्सी पर बैठ गया। इशारा मिलते ही हम अंदर छुपी हुई सहेलियाँ बाहर आईं और उस अपराधी को चारों ओर से घेर कर खड़ी हो गयीं। गुस्से से हमारे चेहरे तमतमा रहे थे, जिस्म अकड़े हुए थे। 

वो समझ गया था कि मामला गड़बड़ है पर क्या करता! न भाग सकता था न ही हमला कर सकता था। चुपचाप बैठा रहा। 

हमने उसके सर पर सिगरट की राख डाली, मुहँ पर धुंआ छोड़ा, उसे बुरा-भला कहा। नफ़रत से भरे ताने कसे। थोड़ी देर बाद हमने उसको गंजा कर दिया। उसकी भौएँ भी साफ़ कर दीं। पुरुष साथियों ने उसके पूरे कपड़े उतारे, सफेद पेंट से उसके सिर और पीठ पर लिखा “I AM A RAPIST PIG.” (मैं बलात्कारी सुअर हूँ।)

30 दिसम्बर के आसपास की ठंड के दिन थे। रात के 10 बज चुके थे। हमने उसका सूटकेस तीसरी मंज़िल से नीचे फेंका। सारे कपड़े सडक पर बिखर गये। उसके पहचान पत्र यानि आई डी कार्ड  को हम फ्लश करने ही वाले थे मगर पुरुष साथियों ने ये कह कर रोक दिया कि इससे उसका कोर्ट मार्शल होगा जिससे उसके परिवार ख़ासतौर पर पत्नी को नुक्सान होगा। हम रुक गये। कड़कती सर्दी में रात के 11 बजे के आसपास जब उसे घर से निकाला तो उसके बदन पर एक धागा भी नहीं था। पर इस पूरे समय में वो एक शब्द भी नहीं बोल पाया। हमारे लिए ये एक जीत थी मगर अंदर गुस्सा अभी भी था। उस वक्त तो लगा की हमने बाज़ी जीत ली है। हमें अपने किये पर कोई अफ़सोस नहीं था।

उसके बाद कई दिनों तक ये हादसा मेरा पीछा करता रहा। नींद में भी खलल पड़ चुकी थी। हम इस जीत का ​जश्न नहीं मना पा  रहे थे। एक हफ्ते के भीतर ही मैं और मेरी एक सहेली फिर से मिले। इस घटना पर बात छिड़ी तो हम एक-दूसरे से ही नज़रें चुराने लगे। कुछ था जो दिल पर बोझ सा बना बैठा था। पत्थर या पहाड़ सा। 

बातचीत के दौरान हम दोनों को एहसास हुआ की हम भी कितने हिंसक हैं, कितनी हिंसा हमारे भी अंदर छुपी हुई है। पिछले दो बड़े हिंसक हादसों की लाचारी का बदला हमने इस अकेले व्यक्ति से ले लिया था। हमें अपने किये पर पछतावा हुआ। अपने अंदर के छिपे इस दरिंदे से मिलकर हम खुद से ही डर गये, सहम गये। हमने जो किया वो सही था या नहीं ये असमंजस आज भी बना हुआ है।

यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है  अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा और महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख