शोधिनी: भारत में स्वयं-सहायता एवं स्वास्थ्य की कहानी

रीना निस्सीम
कार्यकर्ता, महिला स्वास्थय के क्षेत्र में कार्यरत नैचुरोपैथिक चिकित्सक, लेखिका एवं प्रकाशक

सन् 1975 में नर्सिंग का प्रशिक्षण पूरा करने के बाद रीना ने जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में डिस्पेंसेयर डे फेमे के नाम से एक प्रायोगिक महिला स्वास्थ्य केंद्र की नींव रखने में बढ़-चढ़कर योगदान दिया। नारीवादी आंदोलन में उनकी आजीवन हिस्सेदारी का यह पहला पड़ाव था।

इसके बाद मध्य अमेरिका, ब्राज़ील, भारत और अमेरिका में अपने कामों के दौरान रीना ने महिला स्वास्थ्य  के मुद्दे पर अभूतपूर्ण अनुभव हासिल किए। बाद में उन्होंने नेचुरल हीलिंग इन गैनोकोलॉजी (स्त्री रोग विज्ञानं में प्राकृतिक उपचार) नाम से पहली पुस्तक लिखी जिसका बाद में 7 भाषाओं में अनुवाद किया गया।

प्रकाशक बनने का ख्याल इसके बाद सामने आया। और इस तरह "एडिशंस मामामेलिस" का जन्म हुआ। उन्होंने स्वस्थ्य से सम्बंधित जो किताबें प्रकाशित की, उनकी सफलता से रीना को दुसरे शीर्षकों और मुद्दों की विस्तृत संभावनाओं का भी पता चला। आज वह ऑड्रे लौर्दे और एदृएन रिच जैसे फ़्रांसिसी लेखिकाओं की रचनाएं भी प्रकाशित कर रही हैं।  

शोधिनी: भारत में स्वयं-सहायता एवं स्वास्थ्य की कहानी

अस्सी के दशक में स्विट्ज़रलैंड में महिलाओं का आदोलन मंद पड़ता जा रहा था। सत्तर के दशक में ही ”महिला मुक्ति आंदोलन“ को ”महिला आंदोलन“ के नाम से संबोधित किया जाने लगा था। इस नई संज्ञा को अपनाया जाना ही अपने आप में एक उल्लेखनीय बदलाव था। नए नाम में ”मुक्ति“ शब्द नहीं रह गया था। कानून के तहत समान अधिकारों के संघर्ष में संस्थाकरण की प्रवृत्ति ज़्यादा दिखाई देने लगी थी। सभी प्रांतों में जेंडर समानता के लिए कार्यालय खोले जा रहे थे। इन संघर्षों को सफलता की मंजि़ल तक लाना एक लंबा काम था मगर कुल मिला कर मेरे अंदर बहुत जोश पैदा नहीं हो रहा था हालांकि मुझे यह देख कर ज़रूर तसल्ली हो रही थी कि बाकी साथी इस काम में जुटी हुई हैं। इसी बीच जिनेवा (1981), एम्सटर्डम (1984) तथा कोस्टा रिका (1987) में हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला स्वास्थ्य सम्मेलनों में स्वायत्त नारीवादी संगठनों के साथ आने से मेरे नारीवादी संपर्क तेज़ी से फैलते जा रहे थे।

मध्य अमेरिका के बाद मैं एक ऐसे महाद्वीप की ओर बढ़ने लगी जो मेरे लिए अभी तक अनजाना था और जहां की राजनीतिक आबोहवा मुझे लौटने की इजाज़त नहीं देती थीं। यह मेरे मूल देश इज़रायल से भी ज़्यादा पूर्व में था। एक यहूदी परिवार में पैदा होने के चलते मैं उम्मीद करती थी कि एक दिन मैं येरूशलम लौट जाऊंगी मगर छह-दिवसीय युद्ध के बाद मैं समझ चुकी थी कि इज़रायल अपने पड़ोसियों से भयभीत कोई छोटा-मोटा मुल्क नहीं है। यह तो एक शक्तिशाली, औपनिवेशिक व्यवस्था बन चुका था।

फिर भारत में मेरी सरगर्मियां शुरू हुईं। यह एक ऐसी प्रतिबद्धता थी जिसके लिए मैंने शुरू में सिर्फ दो साल तय किए थे मगर आखिर में मैं पांच साल तक यहीं रह गई। वीज़ा और कुछ अन्य वजहों से मैं बीच-बीच में जिनेवा जाती रही जिससे मुझे वहां 1991 में महिलाओं की मशहूर हड़ताल में हिस्सा लेने का मौका भी मिला। यह स्विट्ज़रलैंड में महिलाओं की सबसे बड़ी गोलबंदी थी क्योंकि 1981 का महिला एवं पुरुष समानता कानून अभी भी लागू नहीं किया जा रहा था। इस आंदोलन के केंद्रीय नारे का मतलब कुछ यों था - औरतें अगर हाथ पर हाथ धरकर बैठ गईं तो मुल्क औंधे मुंह जा गिरेगा। इस आंदोलन में यूनियनों तथा स्वायत्त एवं संस्थागत नारीवादी संगठनों की रहनुमाई में तकरीबन पांच लाख महिलाओं ने मिल कर अपनी आवाज़ बुलंद की थी। यह एक बेमिसाल अनुभव था।

स्विट्ज़रलैंड के विपरीत भारत और लैटिन अमेरिका के नारीवादी आंदोलन कहीं ज़्यादा सरगर्म और जीवंत दिखाई पड़ते थे। हालांकि मेरा ध्यान महिला स्वास्थ्य के मुद्दों पर ही था मगर मुझे महिला विरोधी हिंसा, कामकाजी महिलाओं की समस्याओं और पर्यावरण-नारीवाद (वंदना शिवा एवं मारिया मिएस) जैसे अन्य मुद्दों पर काम कर रहे महिला संगठनों व शोधकर्ताओं से मिलने का भी भरपूर मौका मिला।

भारत में महिला स्वास्थ्य का एक संक्षिप्त ब्यौरा

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब औरतों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच बहुत टेढ़ा सवाल होता है। स्वास्थ्य केंद्र में जाने का मतलब है दिन भर की दिहाड़ी गंवाना और ऊपर से आने-जाने की लागत का बंदोबस्त करना। इतना नुकसान उठाने के बावजूद शाम को अपने परिवार का पेट पालने का इंतज़ाम करना भारत में अभी भी बहुत सारी महिलाओं के बूते से बाहर है। लड़कों को लड़कियों के मुकाबले ज़्यादा देखभाल मिलती है। घरेलू प्राथमिकताओं की फेहरिस्त में मां हमेशा सबसे आखिर में आती है। लड़कियों को भोजन भी लड़कों से कम मिलता है। इसीलिए तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लड़कों की लंबाई बढ़ती जा रही है जबकि लड़कियों की लंबाई नहीं बढ़ रही है। ऊपर से महिलाएं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर भरोसा भी नहीं करतीं। उनको लगता है कि जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य सेवाओं की आड़ में वहां प्रजनन नियंत्रण की साजि़श काम करती है जो जनसंख्या नियंत्रण के एजेंडा से संचालित है। बहुत सारी महिलाएं जबरन नसबंदी के भय से अपने पेचिशग्रस्त बच्चे को भी स्वास्थ्य केंद्र में लाने से कतराती हैं! लगभग एक तिहाई, और कई जगह तो कम से कम आधे चिकित्साकर्मी केवल परिवार नियोजन के लिए ही काम कर रहे होते हैं। वे अकसर महिलाओं को जन्म नियंत्रण की अपनी योजनाओं में घसीट लेते हैं और यह सब कुछ अकसर उनको मजबूर करके या उनकी इच्छाओं की अवहेलना करके किया जाता है।

नारीवादी आंदोलन आधुनिक पश्चिमी चिकित्सा जगत द्वारा की गई बेइंतेहा ज़ोर-ज़बर्दस्तियों के हमेशा खिलाफ रहा है। उदाहरण के लिए, इंजेक्टेड (NET-EN) या इम्प्लान्टेड (Norplant) प्रोजेस्ट्रोन (एक तरह का हार्मोन) गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल का मसला ही देख लीजिए। यदि महिलाओं को इनके इस्तेमाल से कोई दिक्कत पैदा होती है तो भी वे इनसे छुटकारा नहीं पा सकतीं। ये चिकित्सा पद्धतियां प्रसवों के बीच अनावश्यक रूप से लंबा फासला पैदा कर देती हैं। इसी तरह, आधुनिक अल्ट्रासाऊंड तकनीकों का भी प्रायः भ्रूण का लिंग जानने और तत्पश्चात बालिका भ्रूण को नष्ट करने के लिए धड़ल्ले से अनैतिक प्रयोग किया जा रहा है।

इन तौर-तरीकों के साथ-साथ पश्चिमोन्मुखी चिकित्सा टीमों के पास परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों का ज्ञान भी बहुत सीमित होता है। भारत में आयुर्वेदिक, सिद्ध, यूनानी आदि कई परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हैं और ये सभी काफी लोकप्रिय हैं। मध्य एवं उच्चवर्गीय महिलाएं एलोपैथिक दवाइयों का इस्तेमाल करती हैं मगर वे अपने घरों में काम करने वाली महिलाओं को दूसरी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं से ईलाज करने वाले वैद्यों और हकीमों के पास भेज देती हैं। परंपरागत चिकित्सक आधुनिक पश्चिमी चिकित्सा पद्धति के विपरीत अपने ज्ञान के रहस्यों को साझा करने में कतराते हैं और लिहाज़ा उसे महिलाओं का नहीं समझाना चाहते।

ग्रामीण इलाकों में आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस बात से संतुष्ट है कि एलोपैथिक चिकित्सा से किए जाने वाले ईलाज (जैसे एंटीबायाॅटिक) ही सबसे कारगर होते हैं हालांकि उनके पास इस चिकित्सा पद्धति के इस्तेमाल का ज़्यादा मौका नहीं होता। यह बात डब्ल्यूएचओ के अध्ययनों से सामने आयी है। चूंकि महिलाओं को अधिकांशतः खुद ही अपनी देखभाल करनी पड़ती है इसलिए उनके लिए यही अच्छा होता है कि वे जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित सरल और आसानी से उपलब्ध चिकित्सा विधियों और नुस्खों को जान लें।

परियोजना की शुरुआत

भारत में मेरे रोमांचाक सफर की शुरुआत तब हुई जब मैंने यहां महिला स्वास्थ्य संगठनों का दौरा किया। यहां कई जानी-मानी नारीवादी कार्यकर्ताओं से मेरी भेंट हुई और उन्होंने मुझे भारत आने का न्यौता दिया।

शोधिनी परियोजना औषधीय पौधों और महिला स्वास्थ्य पर एक शोध कार्य अध्ययन था। इसकी शुरुआत अक्तूबर 1987 में की गई थी जब तमिलनाडु में सोसायटी फॉर रूरल एजुकेशन ऐण्ड डेवलपमेंट (एसआरईडी) से जुड़ी फातिमा बर्नाड के घर पर वैकल्पिक चिकित्सा और महिला स्वास्थ्य के मुद्दे पर एक राष्ट्रीय बैठक का आयोजन किया गया था। इस मौके पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय महिला संगठनों की तकरीबन 50 महिलाएं इकट्ठा हुई थीं। शहरी पृष्ठभूमि की महिलाएं ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं से जानना चाहती थीं कि चिकित्सकीय पौधों एवं महिला स्वास्थ्य के बारे में उनके पास कैसा और कितना ज्ञान उपलब्ध है। ग्रामीण महिलाएं शहरी महिलाओं से उन चीज़ों के बारे में जानना चाहती थी जिन तक उनकी कोई पहुंच नहीं थी, खासतौर से गर्भनिरोध के साधनों के बारे में। इस दौरान बहुत सारी कार्यशालाओं का आयोजन किया गया: खुद अपनी जांच कैसे करें, प्रजनन क्षमता, गर्भावस्था संबंधी समस्याएं, यौनिकता, ट्यूमर, मानसिक स्वास्थ्य और गर्भनिरोधक तरीके आदि। इस मीटिंग से दो परियोजनाओं का खाका सामने आया: शोधिनी तथा भारत में डायाफ्रामों के इस्तेमाल पर एक प्रायोगिक परियोजना।

मैंने स्वयं-सहायता कार्यशालाओं के आयोजन में दिलचस्पी रखने वाले विभिन्न भारतीय संगठनों के न्यौते को स्वीकार कर लिया। इन संगठनों में एसआरईडी (तमिलनाडु), चेतना (सेंटर फॉर हैल्थ, एजुकेशन, ट्रेनिंग ऐण्ड न्यूट्रीशन अवेयरनेस, गुजरात) तथा सूत्र (सोशल अपलिफ्ट थ्रू रूरल ऐक्शन, हिमाचल प्रदेश) प्रमुख थे। मध्य अमेरिका की तरह सभी जगह ग्रामीण महिलाओं को जब भी अपने शरीर के बारे में जानने का मौका मिलता है या अपने स्वास्थ्य के सवाल पर संगठित होने का मौका मिलता है तो वे पीछे नहीं हटतीं।

मुझे अपने इस सफर में कुछ मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा। चेतना की शहरी शाखा में आयोजित की गई कार्यशाला में ऐसी महिलाएं आयी थीं जो संगठन के सोपानक्रम में तुलनात्मक रूप से ऊपर थीं (निदेशक और प्रशासकीय टीम की सदस्याएं) और दूसरी तरफ इसी कार्यशाला में ग्रामीण महिलाओं के बीच कार्यरत समूहों (जैसे सेवा) की भी महिलाएं थीं। एक मौके पर एक डॉक्टर ने "मैं स्वयं-सहायता के लिए तैयार नहीं हूं“ कहने की बजाय ”हम स्वयं-सहायता के लिए तैयार नहीं हैं" तक कह डाला था। ज़ाहिर है इससे औरों पर बहुत ही नकारात्मक असर पड़ा। बाद की एक फॉलोअप चर्चा में इस डॉक्टर ने यह भी ऐलान कर दिया कि संपन्न परिवारों में महिलाओं के साथ हिंसा नहीं होती! वह खुद को औरों से ऊपर मान रही थी और इस वर्गीय पूर्वाग्रह की छाप को मिटाना ज़रूरी था। आखिरकार कार्यशाला में पांच महिलाएं आयीं। वे न तो संगठन की नेतृत्वकारी महिलाओं में से थीं और न ही किसान महिलाएं थीं, वे सभी मध्यवर्गीय महिलाएं थीं।

चेतना ने डीडीएस और अन्वेषी (ज़ाहिराबाद, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश), एक्शन इंडिया, जागोरी और विकल्प (नई दिल्ली एवं सहारनपुर, उत्तर प्रदेश), एक्या (चिकमगलूर, कर्नाटक) और एकलव्य (देवास, मध्य प्रदेश) के साथ मिलकर परियोजना में हिस्सा लिया। परियोजना की कोर टीम में फिलोमिना विन्सेंट, सरोजिनी एन., रेणु खन्ना, अनु गुप्ता, भारती रॉय, स्मिता बाजपेयी, उमा माहेश्वरी, इंदिरा बालचंद्रन, हमारी बॉटेनिस्ट (वनस्पति विज्ञानी) और मैं शामिल थे। इस समूह को ऐसी महिलाओं से काफी मदद मिली जो खुद डॉक्टर थीं, खासतौर से श्यामा के. नारंग और वीणा शत्रुघ्न से।

जिनेवा लौटने पर मैं परियोजना के लिए पैसे जुटाने में लग गई और आखिरकार मामा कैश (नीदरलैंड्स) और ईज़ेडई (जर्मनी) संस्थाओं से आर्थिक सहायता की मंजूरी मिली तो परियोजना के पहले चरण को शुरू करने का रास्ता खुल गया।

स्वयं-सहायता की पद्धति अपनाने के लिए पहले प्रत्येक महिला के अतीत को खंगाला गया और यह पता लगाया गया कि वे अपनी किन बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं का ईलाज नहीं करा पा रही हैं। विभिन्न पृष्ठभूमियों (शिक्षित और अशिक्षित, ग्रामीण और शहरी) की महिलाओं के साथ कार्यशालाएं आयोजित करने के बाद पता चला कि स्त्री रोग समस्याओं की स्थिति बहुत ही गंभीर है। मासिक स्राव से संबंधित समस्याएं (भारी, दर्द भरा या अनियमित मासिक स्राव), मूत्राशय या जननांगों में संक्रमण, ट्यूमर या गांठ/सिस्ट, गर्भधारण संबंधी समस्याएं बेहद आम थीं। पीठ दर्द, जोड़ों के दर्द, थकान और अवसाद जैसी समस्याएं भी बेहद व्यापक और उपेक्षित थीं। इन नतीजों का महाराष्ट्र के तीन गांवों में प्रगतिशील डॉक्टरों की एक टीम द्वारा किए शोध के नतीजों से भी मिलान करके देखा गया। दि लान्सेट में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चला था कि 90 प्रतिशत महिलाएं स्त्री रोग समस्याओं से पीडि़त थीं मगर उनमें से केवल 10 प्रतिशत ने ही ईलाज कराया था।

पहला चरण

पांच ग्रामीण एवं एक शहरी इलाके में समूहों का गठन किया गया। हर समूह में एक दर्जन सहभागी होती थीं जिनमें व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त मिडवाइफ और स्थानीय चिकित्सकों को भी शामिल किया गया था। प्रशिक्षण के बहाने उन्हें नियमित रूप से मिलने-जुलने का मौका मिला क्योंकि ये प्रशिक्षण स्वयं-सहायता की पद्धति पर आधारित होते थे। खुद अपनी स्वास्थ्य समस्याओं से शुरू करते हुए सहभागियों ने पहले अपनी शारीरिक बनावट और जननांगों के बारे में जानकारियां हासिल कीं। एक आईने और एक फ्लैशलाइट की मदद से उन्हें अपने गर्भाशय को जानने का मौका मिला और उन्होंने दो-हाथों से जांच करना सीखा। इस कदम पर महारत हासिल कर लेना अपने जिस्म और अपनी जि़ंदगी पर नियंत्रण बहाल कर लेने का कदम था। हमने स्वास्थ्य, बीमारी और ईलाज से संबंधित गलतफहमियों और विश्वासों को समझने के लिए कई अन्य महिलाओं के जीवन अनुभवों को भी साझा किया। एक तरीके से हमें न केवल उपरोक्त सारी जानकारियों को दर्ज करने का मौका मिला बल्कि इस बात को समझने में भी मदद मिली कि हम सभी किस तरह काम कर रहे थे।

(फोटो संख्या 12: दो-हाथ से योनि जांच का प्रशिक्षण, डीडीएस, ज़ाहिराबाद, आंध्र प्रदेश, 2012)।

 

इसके साथ ही सहभागी महिलाएं आम बीमारियों के ईलाज के साधारण नुस्खों (जिनमें अधिक से अधिक तीन चीज़ों का इस्तेमाल किया गया हो) के बारे में जानने के लिए अपने इलाके के स्थानीय, परंपरागत उपचारकों से भी जाकर मिलीं। इस तरह उन्होंने बचे-खुचे मौखिक एवं लिखित ज्ञान को बचाने का बीड़ा उठा लिया था। ज़्यादातर महिलाएं निरक्षर थीं इसलिए उनके साथ काम करने के लिए संप्रेषण व दस्तावेज़ीकरण के उचित साधन (जैसे, चित्र युक्त विवरण डिस्क्रीप्शन और रोल प्ले आदि) ढूंढना भी ज़रूरी था। औषधीय पौधों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए साक्षर महिलाओं की मदद लेना लाजि़मी था। किसी भी पौधे के बहुत सारे प्रचलित नामों की वजह से एक वनस्पति संग्रहालय का गठन करना भी ज़रूरी हो गया था। पौधों की निश्चित पहचान सुनिश्चित करने का जि़म्मा कोट्टकल हर्बल गार्डन, केरल की हमारी बाॅटेनिस्ट यानी वनस्पति विज्ञानी के ऊपर था।

इस पूरी कवायद के नतीजे काफी शानदार रहे। अठारह महीने की जद्दोजहद के बाद लगभग 300 पौधों से संबंधित 600 प्रविष्ठियां इकट्ठा कर ली गई थीं। हमने इस सभी पौधों के गुण-दोषों को दर्ज किया और यह भी जाना कि इनको किन लक्षणों के लिए प्रयोग किया जा सकता है। उपलब्ध साहित्य से अपने निष्कर्षों की पुष्टि करके यह पता लगाया कि सबसे ज़्यादा पौधे (जिन्हें ‘ए’ श्रेणी में रखा गया था) समान गुणों व प्रयोगों के लिए विशेषज्ञ प्रकाशनों से मेल खाते थे। हमारे नतीजों के दूसरे हिस्से (जिन्हें ‘बी’ श्रेणी में रखा गया) में ऐसे पौधे थे जिनका उल्लेख विशेषज्ञ प्रकाशनों में तो किया गया था मगर जिनके बारे में महिला स्वास्थ्य संबंधी खास संकेत ज्ञात नहीं थे। केवल 14 पौधों को खतरनाक या विषैला (श्रेणी ‘सी’) पाया गया और उन्हें इस फेहरिस्त से बाहर निकाल दिया गया, जैसे, अनिद्रा के लिए मादा अबाबील के मल से निकाली जाने वाली एक औषधि। इन नतीजों के साथ महिलाओं से प्राप्त मौखिक ज्ञान की विश्वसनीयता सिद्ध हुई और शोध का नया क्षेत्र खुलने लगा।

और फिर दूसरा दौर...

इस दौरान रेणु खन्ना और उनका संगठन (सहज - सोसायटी फॉर हेल्थ ऑल्टरनेटिव्ज़, बड़ौदा) भी इस समूह में शामिल हो गए। महिलाओं के प्रशिक्षण यथावत जारी थे। अब उनमें पहले से ज़्यादा परिष्कार और पैनापन आ गया था। किसी पौधे की उपयोगिता की पुष्टि करने के लिए विस्तृत सवाल-जवाब ज़रूरी होता था जिसमें पिछले अनुभवों, लक्षणों के विस्तृत विवरण और मुकम्मल जांच से संबंधित सवाल भी शामिल होते थे। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सटीक निदान की क्षमता हासिल करना भी ज़रूरी था जोकि रोगी की शिकायत से स्वतंत्र और चिकित्साकर्मियों के प्रेक्षण व जांच पर आधारित होनी चाहिए। कार्यशालाओं के दौरान आसव/जोशांदा, काढ़ा, चूर्ण और मल्हम आदि कई सामान्य दवाइयां भी तैयार की गईं। सबसे जयादा परिष्कृत दवाइयां औषधी घोल/टिंचर होते थे।

दूसरे चरण में अब तक इकट्ठा की गई जानकारियों का क्लीनिकल परीक्षण किया गया। हमने ऐसी स्वास्थ्यकर्मियों को साथ लेकर काम शुरू किया जो अब जड़ी-बूटियों पर आधारित दवाइयों के प्रति सहज महसूस करने लगी थीं। अब वे गांवों में ज़्यादा स्वायत्त ढंग से काम कर रही थीं और उन्हें जाने-पहचाने गुणों वाली इन्हीं जड़ी-बूटियों की कुशलता के कारण पहले से ज़्यादा पहचान और मान्यता मिलने लगी थी।

सबसे पहले हमने ‘ए’ श्रेणी के 35 पौधों का परीक्षण किया। इनको योनि स्राव, पेशाब करते समय जलन, खून की कमी व पोषण संबंधी समस्याओं तथा माहवारी के दौरान दर्द जैसी समस्याओं के लिए इस्तेमाल किया गया। साल भर बाद, अपने प्रयोगों का फीडबैक ले चुकने के बाद हमने श्रेणी ए और श्रेणी बी के 36 अन्य पौधों की क्लीनिकल जांच शुरू की। इन पौधों से बनी दवाइयों का अनियमित माहवारी, गर्भाशय के खिसक जाने, भारी मासिक रक्तस्राव और गर्भावस्था व प्रसव के दौरान पैदा होने वाली कठिनाइयों के ईलाज के लिए इस्तेमाल किया गया।

यह प्रगतिशील पद्धति बहुत कारगर साबित हुई। स्वास्थ्यकर्मी यह भेद करने में सफल रहीं कि योनी स्राव खून की कमी के कारण है या किसी संक्रमण अथवा पीएच असंतुलन के कारण है या वह सामान्य स्राव है। वे माहवारी के खून में थक्कों को भी पहचानना सीख गई थीं और इस मद में खान-पान संबंधी सलाह दे सकती थीं। अब वे माहवारी के बिना होने वाले रक्तस्राव जैसे जटिल मामलों को भी कुछ हद तक समझने लगी थीं। ये महिला कार्यकर्ता संबंधित महिलाओं के भावनात्मक पहलुओं और जीवन व कार्य परिस्थितियों को नजरअंदाज किए बिना उनकी प्रजनन संबंधी समस्याओं पर भी बात करने लगी थीं। वे ”घुमंतू स्त्री रोग विशेषज्ञ“ बन चुकी थीं और उनके पास अपनी तथा गांव की महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार की बदौलत एक अजब आत्मविश्वास आ गया था।

सुधा की कहानी

सुधा डीडीएस (ज़ाहिराबाद, आंध्र प्रदेश) के एक स्थानीय संगठन की सदस्य थीं। उनकी कहानी एक दिलचस्प केस स्टडी है।

दो बेटों की मां सुधा भारत की ऐसी बहुत सारी विधवा महिलाओं में से एक हैं जिनकी सामाजिक हैसियत और आत्मविश्वास बहुत कम था। वह लंबी कद-काठी की मगर कमज़ोर आंखों वाली महिला थीं। वह बहुत भारी पीरियड्स, लगातार थकान, कमर दर्द और रात के समय देखने में दिक्कत जैसी समस्याओं से परेशान थीं। संभवतः उनके शरीर में खून की भारी कमी थी। वह अपने इलाके की स्थानीय नर्स को भी दिखा चुकी थीं जिसने उन्हें आयरन की गोलियां खाने को कहा था। कुछ समय बाद सुधा ने ये गोलियां खानी बंद कर दी थीं क्योंकि इससे उन्हें कब्ज रहने लगी थी।

सुधा के पास घर के ठीक सामने ज़मीन का एक पट्टा था। उनके जेठ का पट्टा भी इस ज़मीन से सटा हुआ था। वह अपनी ज़मीन की सिंचाई इस तरह करता था कि सुधा के खेत के लिए पानी ही नहीं बचता था। स्थानीय संगठन से जुड़ी हम सभी महिलाओं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे अपनी ज़मीन पर हरी पत्तेदार सब्जि़यां उगाएं। हम नियमित रूप से उनके पास जाने लगी थीं। हम ऐसा दिखावा करतीं मानो हम चाय पीने आ गयी हैं। मगर, लगे हाथ हम इस बात पर भी नजर डाल लेतीं कि वह अपनी ज़मीन की नियमित रूप से सिंचाई कर रही हैं या नहीं। हरी पत्तेदार सब्जि़यों की खेती की बदौलत अब उनकी दाल की खुराक में पोषक तत्वों की कमी पूरा करने लगी थी। यह उनके शरीर में आयरन के स्तर को बढ़ाने का एक ऐसा तरीका था जो उनकी सामान्य जीवनशैली से मेल खाता था। धीरे-धीरे उनकी बीमारियों के लक्षण कम होने लगे क्योंकि खून की कमी यानी एनीमिया के कारण ही रक्तस्राव होता है। एक वनस्पति आधारित हॉर्मोनल नियंत्रक (रेग्यूलेटर) देने से उनके गर्भाशय में अतिरिक्त उत्तक बनना कम हो गया था और फलस्वरूप उनका रक्तस्राव कम होने से उनकी लगातार रहने वाली थकान भी पहले से कम हो गई थी।

सुधा के व्यक्तित्व में एक नया आत्मविश्वास दिखाई पड़ रहा था और उनकी खुराक में पोषक तत्वों की मात्रा पहले से बेहतर थी। इसका नतीजा यह हुआ कि वह दूसरी महिलाओं को भी ज़्यादा आत्मविश्वास के साथ और यकीन के साथ अपने अनुभव बताने लगीं। अब वह खून की कमी के ईलाज की संभावनाओं और महत्व पर रोशनी डाल सकती थीं।

मेरी भूमिका

इस दौरान प्रॉजेक्ट कोऑर्डिनेटर के तौर पर मेरी भूमिका यह थी कि इस पद्धति (और इसके फायदे-नुकसानों) के बारे में आयोजित होने वाली स्वयं-सहायता कार्यशालाओं, प्रशिक्षण सत्रों और चर्चाओं के लिए नियमित रूप से प्रत्येक समूह में जाती रहूं।

इसके लिए मुझे काफी सफर करना पड़ता था। मेरा दफ्तर दक्षिण में बंगलौर में और उत्तर भारत में नई दिल्ली में था। बंगलौर से ज़ाहिराबाद (आंध्र प्रदेश) जाने के लिए मुझे रात की रेलगाड़ी लेनी पड़ती थी। इसके बाद ज़ाहिराबाद पहुंच कर मैं पहले बस से और फिर बैलगाड़ी से अपनी मंजि़ल पर पहुंचती थी। ज़ाहिर है यह थकान भरा सफर होता था मगर मेरे पास साथी महिलाओं का ज़बर्दस्त सहायक नेटवर्क था। जब भी मैं जाती तो मेरे दोस्तों (जिनमें पुरुष और महिलाएं, दोनों ही शामिल हैं) के घरों पर मेरा दिल खोलकर स्वागत किया जाता और मुझे हर बार नए-नए अद्भुत लोगों से मिलने का मौका मिलता। प्रत्येक समूह में मैंने थोड़ी-बहुत स्थानीय भाषा भी सीख ली थी। मैं जान गई थी कि अलग-अलग भाषाओं में ‘योनी स्राव’ को क्या कहा जाता है - यह हंसी-ठठ्ठे के लिए अच्छा साधन था!

कोऑर्डिनेटर्स के बीच हम अंग्रेजी में बात करते थे। यही भाषा थी जो हमें आपस में जोड़ती थी क्योंकि विभिन्न समूहों में जो भाषाएं बोली जा रही थीं (हिंदी, गुजराती, तेलगू, तमिल, कन्नड आदि), उनमें से एक भी ऐसी नहीं थी जो उत्तर से दक्षिण तक सब जगह बोली जाती हो।

हर छह महीने में कोऑर्डिनेटर्स की बैठक होती थी ताकि संगठन को और बेहतर बनाया जा सके। समूह की अपनी स्वयं-सहायता कार्यशाला भी आयोजित की जाती थी जिसमें कुछ समय तो लगता था मगर समूह को काफी ताकत मिल जाती थी। समूह की चैथी मीटिंग में फिलोमिना विन्सेंट (एक्या) ने कहा था, स्वयं-सहायता पद्धति में मुझे सबसे अच्छी बात यह लगती है कि सभी को एक व्यक्ति के तौर पर हिस्सा लेने का पूरा मौका मिलता है। दूसरे कार्यक्रमों में ऐसा नहीं हो पाता।

इस अनुभव की एक खास बात यह थी कि मूल शोधिनी समूह से जुड़े स्थानीय समूहों में भी मीटिंगों का आयोजन किया गया। मिसाल के तौर पर, डीडीएस, ज़ाहिराबाद (आंध्र प्रदेश) की महिलाओं को विकल्प (उत्तर प्रदेश) की महिलाओं से मिलने का मौका मिला। रेणु खन्ना (सहज, बड़ौदा) ने एक मेले का आयोजन किया जिसमें तकरीबन सौ लोक स्वास्थ्य कर्मियों ने हिस्सा लिया था। उन सबकी भाषा तो एक नहीं थी मगर कोआॅर्डिनेटर्स तथा कुछ दुभाषियों ने उनके बीच संवाद की कमी नहीं होने दी।

प्रत्येक चरण के आखिर में मैं स्विट्ज़रलैंड लौट जाती और कार्यक्रम को चालू रखने के लिए पैसा इकट्ठा करती। यह फंडिंग सीधे स्थानीय समूह के पास पहुंचती थी। इनमें से एक समूह को कार्यक्रम से हटना पड़ा क्योंकि उसकी कोऑर्डिनेटर 25 फीसदी फंडिंग को अपनी जेब में डाल लेना चाहती थी! ईजे़डई के बाद हम नोराद (नॉर्वेजियन एजेंसी फॉर डेवलपमेंट कोऑपरेशन) और दानिदा (दानिश इंटरनैशनल डेवलपमेंट एजेंसी) को भी इस कार्यक्रम में योगदान के लिए राज़ी करने में कामयाब रहे। इसके बाद मुझे पैसा इकट्ठा करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। पहले फिलोमिना और बाद में रेणु ने यह काम खुद संभाल लिया था।

प्रसार का चरण

फिलीपींस से लौटने के बाद हमने प्रसार और प्रकाशन का काम शुरू किया। स्थानीय समूहों ने अन्य महिलाओं व समूहों के साथ अपने ज्ञान व व्यवहार के आदान-प्रदान के लिए पर्याप्त आत्मविश्वास, कौशल और दक्षता हासिल कर ली थी। मेरे प्रशिक्षण में हिस्सा लिये या मुझसे मिले बिना ही नई महिलाएं/समूह नेटवर्क से जुड़ते जा रहे थे। अब मेरे लिए स्विट्ज़रलैंड लौटने का समय आ गया था।

शोधिनी कलेक्टिव का मुख्य काम था एक किताब तैयार करना। पहले यह किताब अंग्रेजी में तैयार होनी थी। हमने मिलकर इसके अलग-अलग पहलुओं को तैयार किया और मिलकर उनकी जांच की। किसी ने इतिहास और पद्धति पर ज़्यादा काम किया तो किसी ने विश्वासों पर...। यह 10 लेखिकाओं द्वारा लिखी गई किताब साझेदारी की एक ठोस मिसाल थी। 1997 में नई दिल्ली स्थित काली वीमेंस प्रेस (जिसे अब जु़बान के नाम से जाना जाता था) ने टच मीटम मी नॉट वीमेनहीलिंग ऐण्ड प्लांट्स को प्रकाशित किया। जल्दी ही इसका हिंदी संस्करण भी प्रकाशित किया गया और इससे संबंधित लेख स्थानीय प्रेस में भी प्रकाशित हुए (एन. बी. सरोजिनी, ”दि बेयरफुट गाइनेकॉलोजिस्ट“,ह्यूमन लैंडस्केप में)।

टच मीटम मी नॉट के अंग्रेज़ी संस्करण की जिल्द)

स्वयं-सहायता पद्धति और परिवार नियोजन की पद्धति का फर्क निर्णय प्रक्रिया के स्तर पर दिखाई देता है: स्वयं-सहायता समूह में महिलाएं खुद अपनी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों के आधार पर अपनी प्राथमिकताओं को तय करती हैं। परिवार नियोजन केंद्रों में प्राथमिकताएं उन पर थोप दी जाती हैं। जब भारत में महिलाओं से उनकी प्राथमिकताएं पूछी जाती हैं तो प्रायः वे सबसे ज़रूरी चीज़ों पर ही ज़ोर देती हैं: भोजन, पानी और रहने के लिए घर। सेहत का सवाल बाद में आता है: कमज़ोरी (खून की कमी), रक्तस्राव, संक्रमण, खून के थक्के, उभरा हुआ गर्भाशय, गर्भावस्था और प्रसव संबंधी समस्याएं, पीठ दर्द, जोड़ों में दर्द और अवसाद जैसी समस्याएं। इन महिलाओं के लिए गर्भनिरोध की बजाय उर्वरता कहीं ज़्यादा बड़ी चिंता होती है। सेवानिवृत्ति बीमे के अभाव में और भारी शिशु मृत्यु दर के चलते बार-बार गर्भधारण करना और बच्चों को बचा पाना उनकी उत्तरजीविता के लिए अनिवार्य हो जाता है।

हमारी सोच यह है कि महिलाएं खुद अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अपनी समस्याओं को हल करने में सक्षम हों। वे अपने स्वास्थ्य की फिक्र सिर्फ तभी कर पाएंगी जब उनकी दूसरी बुनियादी चिंताएं, जैसे कि आवास या भोजन की कमी को पूरा कर दिया जाएगा। मगर, पश्चिम की महिलाओं की तरह उन्हें भी इस बात के लिए प्रोत्साहन की ज़रूरत है कि वे हमेशा औरों की ज़रूरतों को अपनी ज़रूरतों के आगे रखना छोड़ दें!

शोधिनी का यह रोमांचक सफर मेरा सबसे विकसित स्वयं-सहायता अनुभव रहा।

(फोटो संख्या 14: सारथी बस के आगे मौजूद समूह (गोधर, गुजरात, 1992)। मैं जिस पौधे को देख रही हूं वह गर्भपात करने वाला पौधा है। वैज्ञानिक भाषा में इसे केलोट्रोपिस प्रोसेरा कहा जाता है। यह एक बढि़या मलेरियारोधी उपचार भी है।)

संदर्भ

निस्सीम, रीना (2003), मेडिसिनल प्लांट्स ऐण्ड वीमेन्स हेल्थ इन इंडिया: रिसर्च-ऐक्शन ऑन एफिशिएंसी ऐण्डटॉक्सीसिटी, इंस्टीट्यूट ऑफ ऐप्लाइड ऐथनोफार्मेकोलॉजी, मेट्ज़ में प्रशिक्षण वैधीकरण के लिए जमा कराया गया शोध पत्र।

निस्सीम, रीना (2012), जेंडरएग्रेरियन चेंजेज़ ऐण्ड न्यूट्रीशन, क्रिस्टीन वेरशुर एवं ला’हरमेटन (सं.) कैशिएर्स जेनरे एल डेवलमेंट, संख्या 8 (ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ जिनेवा) में।

यह लेख रीना निस्सीम की 1952 में प्रकाशित किताब के एक अध्याय - ए विच ऑफ मॉडर्न  टाइम्स: सेल्फ-हेल्प ऐण्ड दि वीमेन ऐण्ड हेल्थ मूवमेंट - पर आधारित है।