स्मृतियां

क्रांति और सबला
नारीवादी स्वास्थ्य कार्यकर्ता और शोधकर्ता

हम बम्बई/मुम्बई में कार्यरत नारीवादी स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं और स्वायत्त महिला संगठन फोरम अगेंस्ट अप्रेशन आॅफ वीमेन की सदस्य हैं जिसे आम तौर पर केवल ‘फोरम’ के नाम से ही जाना जाता है। फोरम हमारे लिए बहुत गहरे मायने रखता है। यह हमारे लिए एक ऐसी जीवनरेखा है जो हमारी निजी और पेशेवर जि़ंदगियों में हमें बहुत स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि मुहैया कराती है।

हमने दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के ज़्यादातर देशों में महिलाओं एवं उनके स्वास्थ्य अधिकारों पर जगह-जगह प्रशिक्षण दिए हैं। हम दोनों ने स्वास्थ्य प्रशिक्षकों व कार्यकर्ताओं को ध्यान में रखते हुए माई बाॅडी इज़ माईन (मेरा शरीर मेरा है) नाम से एक सरल महिला-केंद्रित स्वयं सहायता प्रशिक्षण मेनुअल भी तैयार किया है। हमने देश भर के बहुत सारे गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के किशोर-किशोरियों और कार्यकर्ताओं (जिनमें पुरुष और महिलाएं, दोनों शामिल हैं) के लिए ‘दैहिक साक्षरता और यौनिकता’ विषय पर कार्यशालाओं का भी आयोजन किया है। गैर-सरकारी संगठनों, पुलिसकर्मियों, वकीलों और विभिन्न संगठनों के लिए होने वाले प्रशिक्षणों में भी हम जेंडर संवेदीकरण और महिला सशक्तिकरण के मुद्दों को प्रमुखता से उठाते हैं।

इसके अलावा हमने गैर-सरकारी संगठनों, महिला समूहों और दाता संस्थानों के लिए विकास परियोजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन तथा गैर-सरकारी संगठनों, महिला समूहों और दाता संस्थानों के लिए संगठन विकास कार्यक्रमों का भी आयोजन किया है। हम नसबंदी, प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य, प्रवासी महिला अधिकार, जन्म के समय स्त्री लिंग वाले मान लिए गए व्यक्तियों की चिंताओं और बम्बई में सरकार द्वारा चलाए जा रहे रिमांड होम्स में महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा जैसे बहुत सारे मुद्दों पर शोध अध्ययनों में भी हिस्सा लिया है। इन अध्ययनों के सिलसिले में विस्तृत दस्तावेजीकरण और रिपोर्टिंग में भी हम लगातार सक्रिय रही हैं।

फिलहाल हम भारत, नेपाल और बांगलादेश के गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर सुरक्षित प्रवासन के मुद्दों पर काम कर रही हैं। इस प्रक्रिया में हमने संभावित प्रवासी महिला मजदूरों से बात की है और उन्हें अपने गृह देश, यात्रा के दौरान और कार्य स्थल पर प्रवासियों को मिलने वाले अधिकारों के बारे में जानकारियां व समझ प्रदान की है।

स्मृतियां

अस्सी के दशक की शुरुआत में (अब तो किसी और ज़माने की बात लगती है ना!) हम दोनों सहेलियों ने उस महाकाय धार्मिक संस्थान को चुनौती दी जिससे हम जुड़ी हुई थीं। हमने वो रास्ता छोड़ दिया और अपने लिए तथा औरों के लिए भी एक ज़्यादा सार्थक जि़ंदगी की तलाश में एक नए रास्ते पर निकल पड़ीं।

घर और परिवार के भीतर हम अपने प्रगतिशील माता-पिता द्वारा सिखाए गए उसूलों को अपने सादा-सरल ढंग से निभाने की कोशिश कर रही थीं मगर जब जेंडर समानता का सवाल आया तो उनके पितृसत्तात्मक तौर-तरीके भी उतने ही मजबूत थे जितना आम समाज में दिखाई पड़ते हैं। इस भेदभाव से बचने के लिए हमने सोचा कि कॉन्वेंट से जुड़ने पर हमें गरीबों और ज़रूरतमंदों तक पहुंचने का एक ज़रिया मिल जाएगा। हम घर छोड़ कर धार्मिक कॉन्ग्रीगेशन (धर्मिक सभा) में शामिल होने के लिए निकल पड़ीं।

कॉन्वेंट में हमने जो 15-16 साल बिताए उनका हमें कोई अफसोस नहीं है। इस दौरान हमें जो शिक्षा मिली उसी से हमें खुद को तराशने के भरपूर मौके भी मिले। कॉन्वेंट में हमें किसी चीज़ की फिक्र करने की ज़रूरत नहीं थी; हमारी सारी ज़रूरतों का पूरा खयाल रखा जाता था। समस्या तब पैदा होती थी जब नियम व्यक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो उठते थे, जब हमारी जि़ंदगियां ज़्यादा अहम हो उठती थीं और गरीबों को नज़रअंदाज़ किया जाने लगता था। जब अन्याय को नज़रअंदाज कर दिया जाता था भले ही वह कितना भी छोटा और मामूली क्यों न हो। हम एक सादा, सरल जि़ंदगी की समर्थक थीं मगर खुद ऐसी जि़ंदगी नहीं जी रही थीं। हम गरीबों की मदद के लिए तैयार थीं मगर धार्मिक जीवन के बंधनों की वजह से ऐसा नहीं कर सकती थीं।

दूसरी सिस्टर्स, खासतौर से हमारी सहेलियां तब बहुत परेशान हुईं जब हमने कॉन्वेंट छोड़ने का फैसला लिया। उनको हैरत होती थी कि हमें भला और क्या दरकार हो सकती है। हमारे परिवार वालों को हमारा ये छोड़ना अच्छा लगा। उनकी नज़र मेंकॉन्वेंट तभी तक एक बाजिब मकसद था जब तक वह एक उच्चतर मकसद की पूर्ति करता हो। जब इस मकसद की पूर्ति न हो पाए तो एक अलग तरह की जीवनशैली को आज़माने के लिए नए रास्ते पर चल पड़ने में कोई हर्जा नहीं है बशर्ते हम शादी की इच्छा के कारण ऐसा न कर रही हों।

धार्मिक जीवन के सुरक्षित माहौल में जी चुकने के कारण हमें आम समाज में फैली सामाजिक समस्याओं का खास अता-पता नहीं था। बेशक, हमें आम जनता की गरीबी, उत्पीड़न और शोषण का पता था, हम जानती थीं कि बहुत सारे लोगों को जायज़ मज़दूरी नहीं मिलती, गरीबों को संसाधनों तक पहुंच नहीं मिलती, हर तरफ भेदभाव है। मगर सिर्फ यह जान लेना ही तो गरीबी और उत्पीड़न के खिलाफ चलने वाले संघर्षों में योगदान देने के लिए काफी नहीं था।

समाज और इसके अंतर्विरोधों के बारे में हमारी समझ में तब रातो-रात बदलाव आ गया जब आखिरकार हमने कॉन्वेंट छोड़ कर आसपास की व्यापक दुनिया से वास्ता कायम किया। इन मुद्दों पर काम कर रहे विभिन्न जनसंगठनों के प्रयासों को समझने के लिए हमने अगले एक साल तक खुद अपनी जि़ंदगियों, अपने संकल्प और अपने भविष्य के बारे में खूब छानबीन की। हमने देश भर के संगठनों से बात की। महाराष्ट्र में हमने काश्तकारी संघटना, श्रमिक संघटना, प्रोग्रेसिव पीपुल्स ग्रुप और आंध्र प्रदेश में क्रॉस जैसे कई गैर-सरकारी संगठनों का दौरा किया और उनके साथ समय बिताया। हमने दो-दो महीने तक इन संगठनों के साथ काम किया और उनकी समझ को जाना, परखा। ये भूमिहीन मज़दूरों, दलितों, आदिवासियों आदि के बीच काम कर रहे मार्क्सवादी विचारधारा वाले संगठन थे।

साल भर के इस चिंतन और अन्वेषण से हमें यह समझ में आ गया था कि यह जानने के लिए हमें गहन अध्ययन करना होगा कि सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संरचनाएं किस तरह आपस में गुंथी हुई हैं। इस क्रम में हमने इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट, बंगलौर में तीन महीने के पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया। यहां हमें माक्र्सवाद का एक मोटा सैद्धांतिक खाका मिला। यहां हमें विचारधाराओं की ऐतिहासिक दृष्टि तथा समाजों की उत्पत्ति की राजनीति को समझने का मौका मिला। पाठ्यक्रम खत्म होते-होते हम कार्ल माक्र्स के सिद्धांतों से इतनी अभिभूत हो चुकी थीं कि अन्याय से लोहा लेने और दुनिया को बदलने, क्रांति करने के लिए तत्पर हो उठी थीं।

इस एक-सवा साल की खोजबीन से जो कुछ हमें मिला वो बेहिसाब था। मगर यह सारा विश्लेषण विकास और पिछड़ेपन के वर्ग व जाति आधारित विश्लेषण तक ही सीमित था। ज़्यादातर वामपंथी संगठन संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों में मुख्य रूप से भूमिहीन मज़दूरों को संगठित करने पर ज़ोर दे रहे थे। महिलाओं की अधीनता व जेंडर आधारित असमानताओं और भेदभावों का कहीं कोई खास उल्लेख नहीं आता था। निजी या सार्वजनिक दायरों में महिलाओं के साथ होने वाली दैनिक हिंसा पर प्रायः कोई भी बात नहीं करता था। या तो महिलाओं के मुद्दे संजीदगी से उठाए ही नहीं जाते थे या उन्हें बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था।

जब तक हमें आभा, गौरी और कमला द्वारा अहमदाबाद में ”महिलाएं एवं विकास“ शीर्षक 10 दिवसीय कार्यशाला में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था तब तक हम खुद भी इस गायब कड़ी के बारे में ज़्यादा फिक्रमंद नहीं थीं। यह 1979 की बात है यानी जागोरी की स्थापना से भी पांच साल पहले की। उस वक्त हमें क्या मालूम था कि वे भारत के स्वायत्त नारीवादी आंदोलन की मामूली अगुवा नहीं हैं बल्कि ये आने वाले दौर में जागोरी जैसी संस्था की नींव भी रखने वाली हैं।

मुझे अब भी याद है कि जब हमसे पूछा गया था कि कार्यशाला से हमें क्या उम्मीदें हैं तो मैंने क्या कहा था: ”मैं सामाजिक विश्लेषण के उपकरण जानना चाहती हूं।“ जब मुझसे पूछा गया था कि इस वाक्य का क्या मतलब है तो मेरे पास कोई जवाब नहीं था। तब मुझे खुद ही अपनी बात काफी अटपटी और बेवकूफाना मालूम हुई थी।

बहरहाल, यह कार्यशाला हम दोनों की जि़ंदगी में एक निर्णायक मोड़ बिंदु साबित हुई। हमें कॉन्वेंट से निकले अभी ज़्यादा वक्त नहीं हुआ था और हम नारीवादी सीखों, नारीवादी शिक्षा, पढ़ाई-लिखाई और चिंतन की भूल-भुलैया में खोती जा रही थीं। हममें और ज़्यादा जानने की भूख बढ़ती ही जाती थी।

इस कार्यशाला में तकरीबन 20 महिलाएं आई थीं। हमारे सत्रों की समयसीमा कमोबेश लचीली थी और उनके बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा भी नहीं होती थी। कभी देर रात तक चर्चा चलती रहती। हमने कार्यशाला के सत्रों के भीतर और बाहर आपस में कमाल के रिश्ते कायम किए। देर रात गए हम साथ बैठकर दिलचस्प किस्से-कहानियां एक दूसरे से बांटती रहती थीं। इसी कार्यशाला में हमारा परिचय महिलाओं के मुद्दों और नारीवाद से कराया गया। हमने परिवार के भीतर और बाहर भेदभाव के खुद अपने अनुभवों को पहचानना सीखा। हमारे सामने दुनिया को देखने का एक बिल्कुल नया नज़रिया खुल रहा था। ”निजी भी राजनैतिक होता है“ (पर्सनल इज़ पोलिटिकल) का यह हमारा पहला तर्जुबा था। अन्य महिलाओं ने अपनी-अपनी जि़ंदगियों के बारे में बताया और हमने भी अपनी जि़ंदगी के अनुभव खोल कर सबके सामने रखे। हम कॉन्वेंट से निकल कर आयी हैं, यह बाकी साथियों के लिए एक नई बात थी। वे धार्मिक जीवन के बारे में जानने को उत्सुक थीं।

खैर, विश्लेषण के उपकरणों का जिक्र तो कहीं नहीं आया मगर पितृसत्ता, औरतों की अधीनता, लैंगिक श्रम विभाजन, घर के भीतर और सार्वजनिक स्थानों पर हिंसा आदि की चर्चा और व्याख्या ज़रूर हुई। हमने जाना कि हर मुद्दा औरतों का भी मुद्दा है। विश्लेषण के एक उपकरण के रूप में ‘जेंडर’ शब्द तो काफी बाद में आया जिसको फंडिंग संगठनों ने ‘पितृसत्ता’ के स्थान पर चलाने की कोशिश की क्योंकि उन्हें ‘पितृसत्ता’ बहुत राजनीतिक और लिहाज़ा कुछ हद तक अस्वीकार्य शब्द लगता था। इसके बाद नारीवादी आंदोलन ने जेंडर शब्द में खुद अर्थ भरे और इसे अपनी नज़र से देखना शुरू किया। एलजीबीटीक्यूआई संगठनों ने इसके अर्थ में और पैनापन पैदा कर दिया है।

सबसे अहम और दिलचस्प बात यह है कि इसी कार्यशाला में हमें अपने नए नाम और नई पहचानें भी मिली थीं!

सब कुछ इतना तेज़ हुआ कि पता ही नहीं चला। इला भट्ट को भी हमारी कार्यशाला में आमंत्रित किया गया था। हम सभी को अपना-अपना परिचय देना था। अचानक हमने महसूस किया कि हमारे ईसाई नाम उस माहौल में कुछ ज़्यादा ही अजनबी से सुनाई पड़ रहे थे। गांवों में ईसाई नामों का उच्चारण भी लोगों के लिए मुश्किल हो जाता है; वे उन्हें पराए से लगते हैं। आम लोगों के बीच ज़्यादा स्वीकार्यता पाने के लिए संभवतः हम खुद भी अपने आप को अपनी ईसाई पृष्ठभूमि से थोड़ा दूर करना चाह रही थीं। लिहाज़ा, जब अपना नाम बताने की हमारी बारी आयी तो ‘सबला’ नाम तकरीबन खुद-ब-खुद मुंह से निकल गया। उसी क्षण आभा ने हममें से एक की ओर झुक कर ‘क्रांति’ शब्द फुसफुसा दिया और यहीं से ये दोनों नाम हमारी पहचान बन गए। इन नामों ने हमारा आत्मविश्वास बढ़ाया, हमें हमारी पहचान, प्रेरणा और जीने का मकसद दिया है!

इस कार्यशाला से हम सचेत, विश्लेषणात्मक अवधारणाओं पर स्पष्टता के साथ और इससे भी बढ़कर रचनात्मक ढंग से बोलने, पूछने और आलोचना करने का साहस लेकर बाहर निकलीं। हमने नई, पुख्ता दोस्तियां और एक बिल्कुल नई-नकोर पहचान भी पा ली थी। हम आभा, गौरी और कमला को नारीवाद का पाठ पढ़ाने के लिए कभी मुकम्मल तौर पर शुक्रिया भी अदा नहीं कर सकते। उनके पास ज्ञान, चिंतन, संप्रेषण और समावेशन की बेमिसाल काबीलियत है। ये तीनों बड़ी कद्दावर औरतें हैं - दमदार, आग्रही और आज़ाद। उन्होंने हमारे भीतर समानता व न्याय के सिद्धांतों और मूल्यों के बीज बोये हैं और हमें अपनी जि़ंदगियों से प्रेरणा दी है। उनकी प्रतिबद्धता, रचनाशीलता और जोश ने जागोरी में बहुत सारी दोस्तों को जोड़ा है जिन्होंने इस संगठन को ईंट-दर-ईंट खड़ा करने में भारी योगदान दिया है। पुरानी दोस्तों के अलावा हमें सरोजिनी, कल्याणी, सीमा, गीता, कल्पना, सुनीता और ऐसी ही कई नई मित्र भी मिली हैं।

जहां एक तरफ जागोरी ने अपने प्रशिक्षणों, अपनी सामग्री आदि के ज़रिए महिला/नारीवादी आंदोलन पर अपनी छाप छोड़ी है वहीं दूसरी तरफ हम जागोरी को ‘एकल महिलाओं’ (सिंगल वीमेन) की चिंताओं पर पथप्रदर्शक काम करने के लिए भी उसकी सराहना करते हैं। सेफ सिटी कैम्पेन भी जागोरी का एक दिलचस्प अभियान रहा है। वैकल्पिक स्वास्थ्य एवं यौनिकता एक और ऐसा क्षेत्र है जहां जागोरी का योगदान अभूतपूर्व है। नियमित बुलेटिनों, डायरियों, पोस्टरों, गीत पुस्तिकाओं आदि के रूप में इसके प्रकाशनों में न केवल विवादास्पद मुद्दों को संबोधित किया गया है बल्कि उनको बहुत सरल और स्वीकार्य ढंग से उठाया गया है।

बीते सालों के दौरान हमने जागोरी द्वारा आयोजित की गई कार्यशालाओं में सहभागी और संसाधन व्यक्ति, दोनों भूमिकाओं में हिस्सा लिया है। इस साझेदारी से हमारी प्रशिक्षण की क्षमताओं और संभावनाओं में इजाफा हुआ है और हमारी राजनीतिक दृष्टि पैनी हुई है। स्वतंत्रता और मुक्ति की यात्रा पर निकली हमसफरों के तौर पर शक्तिशाली महिला संगठनों और फलस्वरूप वृहत्तर नारीवादी आंदोलन को रचने और सींचने वाले साझा समुदायों और दोस्तियों के इतिहास को दोहराने और उसमें योगदान देने का मौका मिलना हमारे लिए सौभाग्य की बात रहा है।